Wednesday, December 31, 2008

“खिलाफत आंदोलन”

“खिलाफत आंदोलन”
संजय कुमार चंदवाड़ा

देश के सबसे अनोखे शहर मुंबई, अनोखा इसलिए कि मुझे लगता है। कई बार यकीन करना मुश्किल होता है कि यह शहर भारत का हिस्सा कैसे हो सकता है। पर जैसे ही नजरें ज़मीन पर पड़ती है, सड़कों की हालत देखकर लगता है, नहीं बोस... हो ना हो यह मुंबई, भारत में ही है।
खैर छोड़ों मैं भी क्या लेकर बैठ गया। कहना कुछ और चाहता था कहने कुछ और लगा। असल में मुझे ये लिखने पर मजबूर इसलिए होना पड़ा कि एक सवाल कुछ ज्यादा ही परेशान कर रहा था। हालांकि सवाल में कोई दम नहीं है फिर भी परेशानी इस कदर पैदा हो गई कि नींद ही नहीं आ रही। सवाल ना तो मुंबई से जुड़ा था ना ही आंतकवाद से। बैचेनी इस बात की भी कम नहीं थी कि यह सवाल मन में आया भी तो मुंबई मैं ही क्यों आया। ज़हन में सवाल आने के बाद में जब मैंने इस पर विचार करना शुरू किया तो... कुछ समय बाद मेरे विचारों में वो सवाल नहीं था बल्कि एक और नया सवाल था। नया सवाल ये था कि आखिर ये सवाल में मेरे ज़हन में मुंबई में ही क्यों आया। दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश के किसी गांव में क्यों नहीं आया। जहां ऐसे विषय कहीं ना कहीं सुनने को तो मिलते है।
अरे बाप रे...सवाल तो भूल ही गया क्या था जो नींद हराम किए जा रहा था। सवाल ये था कि खाने के बाद अखबार मैगजीन आदि टटोटलते रहने की आदत से मजबूर उस दिन भी टटोलते-टटोलते एक मैगजीन के एक पेज पर नजर पड़ी। पेज पर विज्ञापन था एक प्रकाशन यानी पब्लिशिंग हाउस । विज्ञान में प्रकाशित किताबों के मुख्य पृष्ठ, दाम सहित छपे थे। इन्हीं में से एक किताब थी “खिलाफत आंदोलन”। हालांकि मुझे अन्य किताबों में भी कोई खास रूचि नहीं थी। उसकी वजह यह नहीं कि मुझे हिंदी से परहेज या फिर साहित्य समझ में नहीं आता या फिर लेखक अच्छे नहीं थे। जबकि मन सभी किताबें खरीदने का, पढ़ने का करता है। पर टाइम किसके पास है। इसमें किताबों का दोष थोड़े ही है। दोष तो इस शहर का है। जब से इस शहर में आना हुआ है पढ़ने का टाइम तो दूर ठीक से सुबह बाथरूम के लिए टाइम नहीं मिलता। ऐसा भी नहीं दिन-रात मेरी मीलें धुआं दे रही हैं पर फिर भी ना जाने क्यों इस शहर में मेरे पास तो क्या किसी के पास टाइम नहीं है। जिसके पास पैसा नहीं है उसके पास भी टाइम नहीं है, जिसके पास है उसके पास भी टाइम नहीं है। जो पैदल चलता है उसके पास भी टाइम नहीं और जो गाड़ी से हिलते नहीं उनके पास भी टाइम नहीं है। बड़ी कन्यूफज़न है। पर सवाल यह भी नहीं था कि इस शहर में टाइम इतना कीमती क्यों है?
सवाल तो असल में यह था कि उस विज्ञापन को पढ़कर मैंने अपने रूममेट से बातचीत करना शुरू की। क्योंकि उसे पढ़ने का बहुत शौक था और कीताबें बहुत सस्ती थीं। मैंने उसे विज्ञापन पढ़ कर सुनाया इतनी कीताबें हैं, इतने पृष्ठ हैं और वो भी इतने कम दामों में। उसने तुरंत जवाब दिया, “इज़ इट, क्या बात कर रहा है। सो चीप”। उसकी एक्साइटमेंट देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने तुरंत मैगजीन उसके हाथों में थमा दी। उसने बड़ी ललकता से विज्ञापन पढ़ा और जितनी एक्साइटमेंट से मैगजीन थामी थी उतनी निराशा से नीचे पटक दी। चेहरे पर भाव ऐसा था कि जैसे एक नंबर से पांच लाख की लाटरी लगते-लगते रह गई हो। मैंने पूछा क्या हुआ। उसने फिर तुरंत जवाब दिया “अरे यार तू भी मजे ले रहा है”। मैं आश्चर्य में पड़ गया, अजीब इन्सान है। एक तो पते की बात बताओ ऊपर से सुनने को मिल रहा है। मैंने कहा क्यों भई, मैंने क्या तुझे मस्तराम की कीताबों का विज्ञापन बताया है। उसने अफसोस जताते हुए जवाब दिया... यार तू भी ना... मैं इस स्टेज में ऐसी किताबें पढ़ूंगा, मुझे क्या एग्जाम देने हैं। “खिलाफत आंदोलन”... यू नो माइ टेस्ट। मैंने कहा, यस आई नो यूअर टेस्ट। सॉरी।
बात खत्म। इतनी देर में उसका फोन बजता है। वो दूसरे कमरे में गुपचुप बातें करता है। मैं कुछ देर सोचता हूं और फिर उस विज्ञापन को देखता हूं। इनती देर में वो एक बुक के साथ अपने बिस्तर पर लैटता है। बुक को बीचोबीच से खोलता है एक टकटकी लगाए पढ़ना शुरू। बुक का नाम है “women from venues, men from mars”.
मेरे मन को परेशान करने वाला सवाल यह था कि आखिर “खिलाफत आंदोलन” इस स्टेज में क्यों नहीं पढ़ा जा सकता। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने दिल्ली में अपने भतीजे को फोन लगाया। वह अभी स्कूली छात्र है। ठीकठाक है पढ़ने में। मैं उससे पूछा यार एक बात बता तूने “खिलाफत आंदोलन” पढ़ा है। उसने कहा, हां। मुझे जरा सी हिचकिचाहट हो रही थी उससे पूछने में। वो भी सोच रहा होगा कि क्या बंदा है यार यह भी रात को कितना पकाऊ सवाल सवाल पूछ रहा है वो भी मुंबई जैसे शहर से। खैर उसने पूछा, क्या चाचू अचानक हिस्ट्री में इंट्रेस्ट कैसे। मैंने कहा, कुछ नहीं यार... बस ऐसे ही। ऐसे ही तो नहीं हो सकता। क्या बात है। मैंने टरकाते हुए कहा, ऐसे ही यार... कुछ खास नहीं... पर एक बात बता आजकल हिस्ट्री-विस्ट्री कौन पढ़ता है। इसकी क्या वैल्यू। एमबीए के दौर में हिस्ट्री-विस्ट्री कौन पूछता है। इससे कौन सी जॉब मिल जाती है। मैंने अपनी इंटेलीजेंसी झाड़ते हुए और यह जताते हुए कि मैं मुंबई जैसे शहर में रहता हूं और प्रोफेशनल हूं। उसे दो-चार लाइनों से इम्प्रेस करने की कोशिश की। उसने बड़े ही ध्यान से सुनी। और कुछ लाइने कही। चाचू हिस्ट्री-विस्ट्री कितना जरूरी है कितना नहीं यह तो मैं नहीं बता सकता हां पर यह जरूर बता सकता हूं कि “खिलाफत आंदोलन” पढ़ीएगा जरूर। आपको जल्दी समझ में आएगा कि आपकी मुंबई में हुए 60 घंटे के आंतकवादी हमले के पीछे जिन संगठनों का हाथ है वो भी शुरू में बहुत छोटे थे। मैं एकदम उस पर चढ़ गया, क्या बकवास कर रहा है यार... मुंबई में आंतकवादी हमलों से हिस्ट्री का क्या लेना-देना। उसने जवाब दिया, मैंने कब कहा लेनादेना है। मैं तो बस यह कह रहा हूं “खिलाफत आंदोलन” पढ़ना जरूर आपको जल्दी समझ में आ जाएगा।
क्या मैं “खिलाफत आंदोलन” पढ़ू। पर क्यों पढ़ूं। मुझसे उससे क्या मिलने वाला है। मेरा रूममेट सही कहता है, “खिलाफत आंदोलन” में कोई टेस्ट थोड़े ही है। हां... अब समझ में आया रूममेट सही है।... फिर कुछ देर सोचने के बाद... भतीजे के शब्द गूंजने लगते है। “खिलाफत आंदोलन” पढ़ीएगा जरूर, आपको जल्दी समझ में आ जाएगा। आंतकवाद, “खिलाफत आंदोलन”, मेन-वुमन, हिस्ट्री-विस्ट्री, एमबीए...........60 घंटे आंतकवादी हमला,600 घंटे टीवी पर फुटेज.... ये सब एक साथ मेरे जिज्ञासा से भरे सवाल “खिलाफत आंदोलन, मैं क्यों पढ़ूं” को उलझा रहे हैं। पर मैं नींद में हूं। मैं सो रहा हूं।

Tuesday, October 21, 2008

इस कदर

पलट कर उसने इस कदर देखा
हमने उन्हें फिर कभी न देखा
कोई इस कदर भी भला कोई देखता है
उसकी आंखों में हर पल रक्त रहता है।

चार लाइन

एक लाइन
दो लाइन
तीन लाइन
चार लाइन